Thursday 8 December 2011

भारत देश, देशवासी और राजनीति - एक व्यंग !!

जब भी लोकसभा का सीधा प्रसारण अपनी टेलीविजन स्क्रीन  पर देखता हूँ  तो अजीब सा ख्याल मन में आता है -
 "आज से 64 साल पहले हम सब कितने अनुशासित थे, क्यूंकि हमे आज़ादी  चाहिए थी..
और आज जब हम सब आज़ाद हैं,  तो हमे अनुशासन की कितनी ज्यादा आवश्यकता है... "

    हमारे नेता जो समय के साथ हर मुद्दे पर राजनीती खेलना बखूबी जान चुके  हैं.. जिन्हें देश की समस्या से ज्यादा अपने वोट बैंक की फिकर लगी रहती है.काश वो देश के हित को अपने नीजी लाभों  के ऊपर रख पाते,
तो ना कभी धर्म के नाम पर दंगे होते, ना कभी गरीब- अमीर के बीच इतना फासला, और ना ही कभी किसी 74 साल के बूढ़े को 19 दिनों तक भूखे  रहने की जरुरत पड़ती...


   इन 64 साल में बहुत कुछ बदला-  हमने तरक्की की- विकास भी हुआ, पर एक चीज़ जो शायद किसी ने ना सोची थी क्या लोगो का विश्वास अपनी ही सरकार से इतना कमजोर हो जायेगा.
जिस तरह पिछले दिनों  हर तरह के घोटाले, पैसा-खोरी, और  भ्रष्टाचार के मामले सामने आये वैसा पहले कभी नहीं देखा गया था... चाहे तो इसे मीडिया का कमाल कहें पर अब लोग जागरूक हुए हैं, उन्होंने सवाल करना शुरू कर दिया है, यह  अलग बात है की  कोई इन समूह को राजनीती का नाम दे रहा  है तो कोई धर्म और जाती का...


भारत का इतिहास उठा कर देखिये- शायद कुछ सवालों के जवाब मिल जाएँ !


   हम पर पहले मुघलो ने राज किया, फिर अंग्रेज आये- 100 साल लग गए ये जानने  में की वो हमे लूट रहे हैं  और अगले 100 साल उनको वापिस उन्ही के देश भेजने में.
फिर हमने बढे गर्व से अपनी खुद की सरकार बनायीं. देश गरीबी और  भुखमरी से अगले ३ दशक  तक लड़ता रहा और एक सशक्त रूप में आत्म निर्भरता हासिल की...
तब भी सरकारों के खिलाफ लोग आगे आये, लोगो ने प्रदर्शन किया, सवाल पूछे..
राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण जैसे कर्म पुरुषो ने हमारा मार्ग दर्शन किया, उनसे पहले भी कई महापुरुष हमारी धरती पर आये- सरदार भगत सिंह और बापू...
पर क्या इसी भारत का सपना उन्होंने देखा था...

  आज भी हमारे  देश की हालत  देखकर लगता है की इतने समय में  कुछ नहीं बदला...
आज भी हम दुसरे से उम्मीद लगाकर आराम से बैठे हैं की कोई फिर आएगा और हमे इस गरीबी, भ्रष्टाचार और भेद भाव से मुक्ति दिलाएगा....
हर इन्सान चाहता तो है की भगत सिंह या गांधीजी जैसे पुरुष का जनम हो... पर शर्त यह है की वो पडोसी के घर में पैदा हो..हमे तो सिर्फ अपनी रोटियों से मतलब है...


  अगर कुछ बदलना है तो शुरुआत खुद से ही करनी होगी, धर्म के नाम पर दंगे तब होंगे जब हम एक- दुसरे को अपना दुश्मन मानेंगे... भ्रष्टाचार तब  होगा जब हम उसमे भागीदार बनेंगे... अत्याचार तब होगा जब हम उसे चुपचाप सहते रहेंगे..   गुलज़ार कहते हैं-


" कंधे झुक जाते हैं जब बोझ से इस लम्बे सफ़र के...
हांफ जाता हूँ मैं जब चढ़ते  हुए तेज़ चढाने....
सांस रह जाती है जब सीने में एक गुच्छा सा होकर...
और लगता है की दम अब टूट ही जायेगा यहाँ आकर.....
तब तुम आना मेरे पास और कहना -- ला.. मेरे कंधे पर रखदे... मैं तेरा बोझ उठाता हूँ....."